राष्ट्र हित जीवन समर्पित राष्ट्र हित तन मन राष्ट्र हित धन धान्य मेरा राष्ट्र हित चिंतन एकता की डोर में माला पिरोई है धूप चंदन गंध में आशा डुबोई है एक आस्था एक निष्ठा सजा थाली में भारती की आरती मोहक संजोई है राष्ट्र हित आराधना है राष्ट्र हित अर्पण राष्ट्र हित जीवन समर्पित राष्ट्र हित तन मन बिन थके हर मोड़ से हम सीख लेते हैं पवन के विपरीत अपनी नाव खेते हैं अनकहे अनगिन विचारों को मिला है स्वर अधबने हर घोंसले को प्रीति देते हैं राष्ट्र हित मधुमास मधुकर राष्ट्र हित सावन राष्ट्र हित जीवन समर्पित राष्ट्र हित तन मन आज का निर्माण अपने बाजुओं से है और कल की जीत साहस के क्षणों से है साधना आराधना से शक्ति है मिलती सँवरता उत्कर्ष अपने अनुभवों से है राष्ट्र हित अनुरोध सारे राष्ट्र हित गर्जन राष्ट्र हित जीवन समर्पित राष्ट्र हित तन मन. |
Thursday 28 April 2011
राष्ट्र हित तन मन समर्पित...
Wednesday 27 April 2011
नर हो न निराश करो मन को....
नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।
संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।
- मैथिलीशरण गुप्त
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।
संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।
- मैथिलीशरण गुप्त
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