Bharat Mata Ki Jai

Bharat Mata Ki Jai
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी.

Friday 21 October 2011

"आओ दीप जलायें"



आओ दीप जलायें, दीवाली पर्व बनाएँ
घर घर में ऐसे दीप जलाएँ
भीतर बहार के अंधियारों को
क्यों ना हम मिल जुल कर मिटाएँ
देख प्रगती पड़ोसी की
हम क्यों लालचाएँ
दुर्गति करने जो हों आमदा
उन भूले भटकों को
सदमार्ग पर लाएँ। 

जहाँ हो अंधविश्वास
अज्ञानता बन तिमिर छाये
जब मानव अहंकारवश हो भरमाये
कहीं जगमगाहटों में
वर पिता बने धन लुटेरे
उन की दृष्टि विकसित कर
भीतर बहार के अंधियारों को मिटाएँ
क्यों ना हम मिल जुल कर दीप जलाएँ।

जहाँ घने अंधेरों ने धर्म स्थानों में
भ्रम है फैलाए
घर आंगन में, दलानों में
प्रीति नहीं, नफरत फैलती
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों में
आज मानवता के घातक
शरण पाते इन की दीवारों में
करें सत्य धर्म पालन
भीतर बहार के अंधियारों को मिटाएँ
क्यों ना हम मिल जुल कर दीप जलाएँ।

जलें दीप से दीप
प्रकाश हो सभी परिवारों में
तज अधर्म, सत्य मार्ग पर अग्रसर
भूलें जो हुईं, फिर ना दुहाराएँ
भीतर बहार के अंधियारों को मिटाएँ
क्यों ना हम मिल जुल दीप जलाएँ।

Sunday 14 August 2011

"वहीँ है मेरा हिन्दुस्तां "



जहाँ हर चीज है प्यारी
सभी चाहत के पुजारी
प्यारी जिसकी ज़बां
वही है मेरा हिन्दुस्तां
जहाँ ग़ालिब की ग़ज़ल है
वो प्यारा ताज महल है
प्यार का एक निशां
वही है मेरा हिन्दुस्तां

जहाँ फूलों का बिस्तर है
जहाँ अम्बर की चादर है
नजर तक फैला सागर है
सुहाना हर इक मंजर है
वो झरने और हवाएँ,
सभी मिल जुल कर गायें
प्यार का गीत जहां
वही है मेरा हिन्दुस्तां









जहां सूरज की थाली है
जहां चंदा की प्याली है
फिजा भी क्या दिलवाली है
कभी होली तो दिवाली है
वो बिंदिया चुनरी पायल
वो साडी मेहंदी काजल
रंगीला है समां
वही है मेरा हिन्दुस्तां


कही पे नदियाँ बलखाएं
कहीं पे पंछी इतरायें
बसंती झूले लहराएं
जहां अन्गिन्त हैं भाषाएं
सुबह जैसे ही चमकी
बजी मंदिर में घंटी
और मस्जिद में अजां
वही है मेरा हिन्दुस्तां

कहीं गलियों में भंगड़ा है
कही ठेले में रगडा है
हजारों किस्में आमों की
ये चौसा तो वो लंगडा है
लो फिर स्वतंत्र दिवस आया
तिरंगा सबने लहराया
लेकर फिरे यहाँ-वहां
वहीँ है मेरा हिन्दुस्तां
 

Monday 4 July 2011

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी !!



"अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥"



"लंका पर विजय हासिल करने के बाद मर्यादा पुरुषोत्तम राम अपने

छोटे भाई लक्ष्मन से कहा:

यह सोने की लंका मुझे किसी तरह से प्रभावित नहीं कर रही है

माँ और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़ कर है।"



और आगे मै बात कहना चाहता हूँ कि...



तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?

मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?

किसको नमन करूँ मैं भारत ! किसको नमन करूँ मैं ?



भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ?

नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ?

भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है,

मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है।

जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ?



भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है,

एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है ।

जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है,

देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है ।

निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं ?



खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से,

पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से,

तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है,

दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है।

मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं ?


दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं,

मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं,

घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन,

खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन।

आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं ?


उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है,

धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है,

तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है,

किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है।

मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं ?



Sunday 26 June 2011

भारत जननि तेरी जय हो विजय हो



भारत जननि तेरी जय हो विजय हो ।
तू शुद्ध और बुद्ध ज्ञान की आगार,
तेरी विजय सूर्य माता उदय हो ।।
हों ज्ञान सम्पन्न जीवन सुफल होवे,
सन्तान तेरी अखिल प्रेममय हो ।।

आयें पुनः कृष्ण देखें द्शा तेरी,
सरिता सरों में भी बहता प्रणय हो ।।
सावर के संकल्प पूरण करें ईश,
विध्न और बाधा सभी का प्रलय हो ।।

गांधी रहे और तिलक फिर यहां आवें,
अरविंद, लाला महेन्द्र की जय हो ।।
तेरे लिये जेल हो स्वर्ग का द्वार,
बेड़ी की झन-झन बीणा की लय हो ।।
कहता खलल आज हिन्दू-मुसलमान,
सब मिल के गाओं जननि तेरी जय हो ।।


- अमर शहीद रामप्रसाद 'बिस्मिल'

Monday 20 June 2011

वन्देमातरम गीत नहीं मैं मंत्र हूँ जीने-मरने का


वन्देमातरम गीत नहीं मैं मंत्र हूँ जीने-मरने का
बना रहे हथियार मुझे क्यों अपनो से ही लड़ने का |

जिनने अपनाया मुझको वे सबकुछ अपना भूल गए,
मात्रु -भूमि पर जिए-मरे हंस-हंस फंसी पर झूल गए |
वीर शिवा, राणा, हमीद लक्ष्मीबाई से अभिमानी,
भगतसिंह, आजाद, राज, सुख और बिस्मिल से बलिदानी |
अवसर चूक न जाना उनके पद-चिन्हों पर चलने का
वन्देमातरम गीत नहीं मैं मंत्र हूँ जीने-मरने का |

करनेवाले काम बहुत हैं व्यर्थ उलझनों को छोड़ो,
मुल्ला-पंडित तोड़ रहे हैं तुम खुद अपनों को जोड़ो |
भूख, बीमारी, बेकारी, दहशत गर्दी को मिटाना है,
ग्लोबल-वार्मिंग चुनौती से अपना विश्व बचाना है |
हम बदलें तो युग बदले बस मंत्र यही है सुधरने का
वन्देमातरम गीत नहीं मैं मंत्र हूँ जीने-मरने का |

चंदा-तारे सुख देते पर पोषण कभी नहीं देते,
केवल धरती माँ से ही ये वृक्ष जीवन रस लेते |

जननी और जन्म-भूमि को ज़न्नत से बढ़कर मानें,
पूर्वज सारे एक हमारे इसी तथ्य को पहचानें |
जागो-जागो यही समय है अपनीं जड़ें पकडनें का |
वन्देमातरम गीत नहीं मैं मंत्र हूँ जीने-मरने का | 

Thursday 28 April 2011

राष्ट्र हित तन मन समर्पित...



राष्ट्र हित जीवन समर्पित
राष्ट्र हित तन मन
राष्ट्र हित धन धान्य मेरा
राष्ट्र हित चिंतन
एकता की डोर में माला पिरोई है
धूप चंदन गंध में आशा डुबोई है
एक आस्था एक निष्ठा सजा थाली में
भारती की आरती मोहक संजोई है
राष्ट्र हित आराधना है
राष्ट्र हित अर्पण
राष्ट्र हित जीवन समर्पित
राष्ट्र हित तन मन
बिन थके हर मोड़ से हम सीख लेते हैं
पवन के विपरीत अपनी नाव खेते हैं
अनकहे अनगिन विचारों को मिला है स्वर
अधबने हर घोंसले को प्रीति देते हैं
राष्ट्र हित मधुमास मधुकर
राष्ट्र हित सावन
राष्ट्र हित जीवन समर्पित
राष्ट्र हित तन मन
आज का निर्माण अपने बाजुओं से है
और कल की जीत साहस के क्षणों से है
साधना आराधना से शक्ति है मिलती
सँवरता उत्कर्ष अपने अनुभवों से है
राष्ट्र हित अनुरोध सारे
राष्ट्र हित गर्जन
राष्ट्र हित जीवन समर्पित
राष्ट्र हित तन मन.

Wednesday 27 April 2011

नर हो न निराश करो मन को....

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।

संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।

                                                    - मैथिलीशरण गुप्त

Tuesday 22 March 2011

"अमर शहीद भगत सिंह"


अमर शहीद भगत सिंह का नाम किसी भी भारतीय के लिए अपरिचित नहीं है। इतनी अल्प अवस्था में उन्होंने देशभक्ति, आत्मबलिदान, साहस आदि सद्गुणों का जो उहाहर प्रस्तुत किया, एक साधारण मनुष्य अपने जीवन में उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। भारत राष्ट्र के निर्माण में भगत सिंह के महान कार्यों का योगदान अपने-आप में अद्वितीय है,  इसके लिए भारत युग-युग तक भगत सिंह का ऋणी रहेगा।

आखिर क्या बात थी कि इतनी कम अवस्था में भी इस वीर ने जीतेजी और बलिदान हो जाने के बाद भी अंग्रेज सरकार का सुख-चैन हराम कर दिया था। वह कौन-सा कारण था कि उस समय के प्रसिद्ध नेताओं, राजनीति के महारथियों को भी इस युवक के विषय में कुछ सोचने के लिए बाध्य बोना पड़ा था। और उस समय भारतीय राजनीति में छाये हुए महात्मा गांधी जी को भी इस तेजस्वी व्यक्तित्व की शहादत पर अलोचना का शिकार बनना पड़ा था ? निश्चय ही इस महान विभूति की स्वार्थरहित देशभक्ति, त्याग- भावना तथा अद्वितीय साहस ही इसका कारण रहा होगा।
पंजाब में जन्म लेकर भी उनका दृष्टिकोण केवल पंजाब तक ही सीमित नहीं था। समस्त भारत भूमि उनकी मातृभूमि थी, वे समस्त भारतीयों के अपने थे। एक सिख परिवार में जन्म लेकर भी वह केवल शिख नहीं थे, वह एक सच्चे भारतीय, एक सच्चे मानव थे। एक सच्चे मनुष्य का दृष्टिकोण किसी धर्म, जाति अथवा राज्य तक ही सीमित नहीं होता। उन्होंने सारे भारत के हितों को देखकर ही अपने जीवन का बलिदान किया था। इतिहास में जब भगत सिंह का स्थान अपने-आप में अनूठा है।

भगत सिंह का जन्म 27 सितंबर, 1907 को पंजाब के जिला लायलपुर में बंगा गाँव में हुआ था। (अब यह स्थान पाकिस्तान में चला गया है।) उनके जन्म के समय उनके पिता सरदार किशन सिंह स्वतंत्रता की लड़ाई में भाग लेने के कारण सेंट्रल जेल में बन्द थे। सरदार किशन सिंह के दो छोटे भाई थे- सरदार अजीत सिंह तथा सरदार स्वर्ण सिंह। इस समय सरदार अजीत सिंह मांडले जेल में तथा सरदार स्वर्ण सिंह अपने बड़े भाई सरदार किशन सिंह के साथ ही सजा भुगत रहे थे। इस प्रकार भगत सिंह के जन्म के समय उनके पिता तथा दोनों चाचा देश की आजादी के लिए जेलों में बन्द थे। घर में उनकी माँ श्रीमति विद्यावती, दादा अर्जुन सिंह तथा दादी जयकौर थीं। किन्तु बालक भगत सिंह का जन्म ही शुभ था अथवा दिन ही अच्छे आ गये थे कि उनके जन्म के तीसरे ही दिन उसके पिता सरदार किशन सिंह तथा सरदार स्वर्ण सिंह जमानत पर छूट कर घर आ गये तथा लगभग इसी समय दूसरे चाचा सरदार अजीत सिंह भी रिहा कर दिये गये। इस प्रकार उनके जन्म लेते ही घर में यकायक खुशियों की बाहर आ गयी, अत: उनके जन्म को शुभ समझा गया।
इस भाग्यशाली बालक का नाम उनकी दादी ने भागा वाला अर्थात् अच्छे भाग्य वाला रखा। इसी नाम के आधार पर उन्हें भगत सिंह कहा जाने लगा।
भगत सिंह अपने माता-पिता की दूसरी सन्तान थे। सरदार किशन सिंह के सबसे बड़े पुत्र का नाम जगत सिंह था, जिसकी मृत्यु केवल ग्यारह वर्ष की छोटी अवस्था में ही हो गयी थी जब वह पाँचवीं कक्षा में ही पढ़ता था। इस प्रकार पहले पुत्र की इतनी छोटी अवस्था में मृत्यु हो जाने के कारण भगत सिंह को ही अपने माता-पिता की सबसे पहली सन्तान माना जाता है। भगत सिंह के अलावा सरदार किशन सिंह के चार पुत्र तथा तीन पुत्रियाँ और थीं। कुल मिलाकर उनके छ: पुत्र हुए थे तथा तीन पुत्रियाँ, जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं- जगत सिंह, भगत सिंह, कुलवीर सिंह, कुलतार सिंह, राजेन्द्र सिंह, रणवीर सिंह, बीबी अमर कौर, बीबी प्रकाशकौर (सुमित्रा) तथा बीबी शकुन्तला।
देशप्रेम की शिक्षा भगत सिंह को अपने परिवार से विरासत में मिली थी। उनके दादा सरदार अर्जुन सिंह भी अंग्रेज सरकार के कट्टर विरोधी थे। यह वह समय था, जब अंग्रेजों के विरुद्ध एक भी शब्द बोलना मौत को बुलावा देने के समान था। इन दिनों अंग्रेज की प्रशंसा करना लोग अपना कर्तव्य समझते थे,  इसी से उन्हें सब प्रकार का लाभ होता था।
इसलिए सरदार अर्जुन सिंह के दो भाई सरदार बहादुर सिंह तथा सरदार दिलबाग सिंह भी अंग्रेजों की खुशामद करना अपना धर्म समझते थे, जबकि सरदार अर्जुन सिंह को अंग्रेजों से घृणा थी। अत: उनके दोनों भाई उन्हें मूर्ख समझते थे। सरदार अर्जुन सिंह के तीन पुत्र थे- सरदार किशन सिंह, सरदार अजीत सिंह तथा सरदार स्वर्ण सिंह। तीनों भाई अपने पिता के समान ही निडर और देशभक्त थे।
भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह पर भारत की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन में सरकार ने 42 बार राजनीतिक मुकदमे चलाये। उन्हें अपने जीवन में लगभग ढाई वर्ष की कैद की सजा हुई तथा दो वर्ष नजरबन्द रखा गया। सरदार अजीर सिंह से अंग्रेज सरकार अत्यधिक भयभीत थी। अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलनों मे भाग लेने के कारण जून 1907 में उन्हें भारत से दूर बर्मा की राजधानी रंगून भेज दिया गया। भगत सिंह के जन्म के समय वह वहीं कैद में थे। कुछ ही महीनों बाद वहाँ से रिहाँ होने के बाद वह ईरान, टर्की एवं आस्ट्रिया होते हुए जर्मनी पहुँचे। प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी के हार जाने के पर वह वहाँ से ब्राजील चले गये थे। सन् 1946 में मध्यावधि सरकार बनने पर पण्डित जवाहरलाल नेहरू के प्रयत्नों से पुन: भारत आये।
 
संसार का प्रत्येक प्राणी जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, यह चक्र सदा से चलता आया है और चलता रहेगा। न जाने कितने लोग इस दुनिया में आकर यहाँ से चले गये हैं, आज कोई उनका नाम भी नहीं जानता। किन्तु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिनके इस दुनिया से चले जाने पर भी वे अपने देश और समाज के दिलों से कभी नहीं जाते, अपने श्रेष्ठ कार्यों से उनका नाम सदा-सदा के लिए अमर हो जाता है। ऐसा ही एक नाम शहीद भगत सिंह का भी है, जिन्हें भारतवासी युगों तक नहीं भूल पाएँगे।
                                        "इंक़िलाब ज़िन्दाबाद"

Thursday 17 March 2011

हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा...........

शब्दों को जन्म ही नही दिया
जीवन की आशा दी है
हिंदी तुम ने हर एक भाव को
कोई परिभाषा दी है

जननी हो कर नयी
भाषाओं को रचा है
तुम ने जो भी कह दिया
हर शब्द सच्चा है

तुम माँ हो यही सच है
तुम से दूर क्यों रहा जाए
तुम मे ही हर दिन का काज
किया जाए जो किया जाए
कहा जाए जो कहा जाए
तुम से दूर क्यों रहा जाए


गंगाजल सी निर्मल हो
ममता जैसी सरल हो
तुम सभी देवताओं की
अर्चनाओं का फल हो

तुम मे बालक की हथेली कभी
कभी आकाश सा फैलाव है
तुम उसे साँचा दे देती हो
मेरे पास जो भी भाव है

अब दूरीया सब मिटानी हैं
तुम्हारे पास मैं सदा रहूँगा
तुम जो कहोगी मैं लिखूँगा
तुम जो लिखोगी मैं कहूँगा
तुम्हारे पास मैं सदा रहूँगा.......

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा......

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी वो गुलसिताँ हमारा

ग़ुरबत में हों अगर हम रहता हो दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी दिल है जहाँ हमारा

परबत वो सब से ऊँचा हमसायह आसमाँ का
वो संतरी हमारा वो पासबाँ हमारा

गोदी में खेलती है इसकी हज़ारों नदियाँ
गुलशन हैं जिनके दम से रश्क-ए-जनाँ हमारा

ए अब रूद-ए-गंगा वो दिन है याद तुझको
उतरा तिरे किनारे जब कारवाँ हमारा

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा

यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा सब मिट गए जहाँ से
अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशान हमारा

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी वो गुलसिताँ हमारा
...

Wednesday 16 March 2011

इसीलिए देश आजाद है

वे आबाद हैं
इसीलिए देश आजाद है
तीन रंगों कि गीली आज़ादी
हर साल रंगीन हो जाती है
ये देश इतना पावन है
के देश भक्ति एक सावन है
कब बरस जाये
और यह रंग बह जायें
स्कूलों मैं राष्ट्र वंदना गाते हैं
समोसे से जले हाथ को झंडे से सहलाते हैं..
हिन्दू मुस्लिम विवाद धार्मिक है
और धर्म मैं कभी कभी कपडे भी फट जाते हैं..
हर चुनाव के परिणाम मैं
ग़रीब कहता है
" कि अगर वो नेता होता
तो कुछ दुखी नहीं होने देता"
मगर किस को मालूम कि सत्ता उस चूने का नाम है
जो ठेले मैं पान के साथ खा लिया जाता है
क्या कहें कि राजनीती मजबूरी का नाम है
एक तरफ मछली सा पेट
एक तरफ आवाम है
और वे सभी मुझ से सहमत हैं
के यह देश एक तहमत है
जब भारी लगा पहनो
हल्का लगा उतार दो
सबके हाथ मैं देश का झंडा है
कि देश चलाना बनिए का धंधा है
गुनाह काले तवे पर सफ़ेद सा सिकता है
देश का झंडा आठ आने मैं बाज़ार मैं बिकता है
देशभक्ति हमारी फितरत नहीं आदत है
आदत बुरी है, आदत शामत है.

जहाँ डाल्-डाल् पर्
सोने की चिड़ियां करती है बसेरा
वो भारत् देश् है मेरा
जहाँ सत्य अहिंसा और् धर्म् का
पग्-पग् लगता डेरा
वो भारत् देश् है मेरा
ये धरती वो जहां ऋषि मुनि
जपते प्रभु नाम् की माला
जहां हर् बालक् एक् मोहन् है
और् राधा हर् एक् बाला
जहां सूरज् सबसे पहले आ कर्
डाले अपना फेरा
वो भारत् देश् है मेरा
अलबेलों की इस् धरती के
त्योहार् भी है अलबेले
कहीं दीवाली की जगमग् है
कहीं हैं होली के मेले
जहां राग् रंग् और् हँसी खुशी का
चारो और् है घेरा
वो भारत् देश् है मेरा
जहां आसमान् से बाते करते
मंदिर् और् शिवाले
जहां किसी नगर् मे किसी द्वार् पर्
को न ताला डाले
प्रेम् की बंसी जहां बजाता
है ये शाम् सवेरा
वो भारत् देश् है मेरा॥

होली

अनेक रंग है इस पर्व के, अनेक रंग समेटे है
ये त्योहार है ये रंगों का, अनेक रंग समेटे है ये
पर्व ये ऐसा जब रंग सारे खिलते है,
बैर और दुश्मनी के दंभ सारे धुलते हैं,बहता है रंग जो चहुं ओर
मित्रता के संगत बनते हैं

पर्व ये ऐसा जब रंग सारे खिलते है,
प्रीत की रीत के परि‍णय बनते हैं,
होती है मादकता हर ओर
प्रेम के मधुर पग बढ़ते हैं

पर्व ये ऐसा जब रंग सारे खिलते हैं,
जीवन पे पसरी नीरसता मिटती है,
होती है प्रसन्नता सभी ओर
नयी उमंग में सब संग बढ़ते है

अनेक रंग है इस पर्व के, अनेक रंग समेटे है ये
त्योहार है ये रंगों का, अनेक रंग समेटे है ये....

Tuesday 15 March 2011

Why is India Referred to as 'Mother India'?

For Indians, their motherland represents more than a piece of land. They see India with the love, respect and awe of a real mother. In many ways, their sentiments are not ill-founded.Like all mothers, Bharat Mata gave us our existence (literally for all those blessed enough to be born in India, and at least culturally for all those who originate from Her). She nurtures us, protects us, and sees to our holistic development. The air we breathe, the water we drink, the grains we eat, the cotton grown and made into the clothes we wear, the shelter and refuge we take,… all these are Her loving gifts to us, Her beloved children. And like all children, every proud Indian yearns to leave his mortal body in Her tender lap.
Many poets have literally personified Bharat Mata as a strong and dynamic holy figure – with quite some literary flare.
           
She, whose flocks of Jammu and Kashmir flutter in the breeze
Whose crown of the Himalayas shimmers as the roof of the world
Whose robust arms of Gujarat and Bengal swing in Her graceful gait
Whose bosom of Madhya Pradesh swells with pride and confidence
Whose veins are aflow with the holy waters of the Ganga, Yamuna and Sarswati
Whose holy feet of Kerala are continuously washed by the Indian Ocean and the Arabian Sea
And to whom the sun and moon offer their arti day and night,
O Bharat Mata! I offer my humble prostrations.
जहाँ डाल्-डाल् पर्
सोने की चिड़ियां करती है बसेरा
वो भारत् देश् है मेरा
जहाँ सत्य अहिंसा और् धर्म् का
पग्-पग् लगता डेरा
वो भारत् देश् है मेरा
ये धरती वो जहां ऋषि मुनि
जपते प्रभु नाम् की माला
जहां हर् बालक् एक् मोहन् है
और् राधा हर् एक् बाला
जहां सूरज् सबसे पहले आ कर्
डाले अपना फेरा
वो भारत् देश् है मेरा
अलबेलों की इस् धरती के
त्योहार् भी है अलबेले
कहीं दीवाली की जगमग् है
कहीं हैं होली के मेले
जहां राग् रंग् और् हँसी खुशी का
चारो और् है घेरा
वो भारत् देश् है मेरा
जहां आसमान् से बाते करते
मंदिर् और् शिवाले
जहां किसी नगर् मे किसी द्वार् पर्
को न ताला डाले
प्रेम् की बंसी जहां बजाता
है ये शाम् सवेरा
वो भारत् देश् है मेरा॥।